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तान्यज॑त्राँ ऋता॒वृधोऽग्ने॒ पत्नी॑वतस्कृधि। मध्वः॑ सुजिह्व पायय॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tān yajatrām̐ ṛtāvṛdho gne patnīvatas kṛdhi | madhvaḥ sujihva pāyaya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तान्। यज॑त्रान्। ऋ॒त॒ऽवृधः॑। अग्ने॑। पत्नी॑ऽवतः। कृ॒धि॒। मध्वः॑। सु॒ऽजि॒ह्व॒। पा॒य॒य॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:14» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:27» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में अग्निशब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) जगदीश्वर ! आप (यजत्रान्) जो कला आदि पदार्थों में संयुक्त करने योग्य तथा (ऋतावृधः) सत्यता और यज्ञादि उत्तम कर्मों की वृद्धि करनेवाले हैं, (तान्) उन विद्युत् आदि पदार्थों को श्रेष्ठ करते हो, उन्हीं से हम लोगों को (पत्नीवतः) प्रशंसायुक्त स्त्रीवाले (कृधि) कीजिये। हे (सुजिह्व) श्रेष्ठता से पदार्थों की धारणाशक्तिवाले ईश्वर ! आप (मध्वः) मधुर पदार्थों के रस को कृपा करके (पायय) पिलाइये॥१॥(सुजिह्व) जिसकी लपट में अच्छी प्रकार होम करते हैं, सो यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (ऋतावृधः) उन जल की वृद्धि करानेवाले (यजत्रान्) कलाओं में संयुक्त करने योग्य (तान्) विद्युत् आदि पदार्थों को उत्तम (कृधि) करता है, और वह अच्छी प्रकार कलायन्त्रों में संयुक्त किया हुआ हम लोगों को (पत्नीवतः) पत्नीवान् अर्थात् श्रेष्ठ गृहस्थ (कृधि) कर देता, तथा (मध्वः) मीठे-मीठे पदार्थों के रस को (पायय) पिलाने का हेतु होता है॥२॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को अच्छी प्रकार ईश्वर के आराधन और अग्नि की क्रियाकुशलता से रससारादि को रचकर तथा उपकार में लाकर गृहस्थ आश्रम में सब कार्यों को सिद्ध करना चाहिये॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निशब्देनेश्वरभौतिकावुपदिश्येते।

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वं तान् यजत्रानृतावृधो देवान् करोषि तैर्नः पत्नीवतः कृधि। हे सुजिह्व ! मध्वो रसभोगं कृपया पायय, इत्येकः। अयमग्निः सुजिह्वस्तानृतावृधो यजत्रान् देवान् करोति, स सम्यक् प्रयुक्तः सन्नस्मान् पत्नीवतः सुगृहस्थान् करोति मध्वो रसं पाययते तत्पाने हेतुरस्तीति द्वितीयः॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तान्) विद्युदादीन् (यजत्रान्) यष्टुं सङ्गमयितुमर्हान्। अत्र अमिनक्षियजिवधि० (उणा०३.१०३) अनेन यजधातोरत्रन् प्रत्ययः। (ऋतावृधः) ऋतमुदकं सत्यं यज्ञं च वर्धयन्ति तान्। अत्र अन्येषामपि दृश्यते इति दीर्घः। (अग्ने) जगदीश्वर भौतिको वा (पत्नीवतः) प्रशस्ताः पत्न्यो विद्यन्ते येषां तानस्मान्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (कृधि) करोषि करोति वा। अत्र लडर्थे लोट्, पक्षे व्यत्ययः, विकरणाभावः, श्रुशृणुपॄकृ० (अष्टा०६.४.१०२) अनेन हेर्ध्यादेशश्च। (मध्वः) उत्पन्नस्य मधुरादिगुणयुक्तस्य पदार्थसमूहस्य रसभोगम् (सुजिह्व) सुष्ठु जोहूयन्ते धार्य्यन्ते यया जिह्वया शक्त्या तत्सहित; सुष्ठु हूयन्ते जिह्वायां ज्वालायां यस्य सोऽग्निः। (पायय) पाययति वा॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वराराधनेन सम्यगग्निप्रयोगेण च रससारादीन् रचयित्वोपकृत्य गृहाश्रमे सर्वाणि कार्य्याणि निर्वत्तयितव्यानीति॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी चांगल्या प्रकारे ईश्वराची आराधना करावी व अग्नीच्या प्रयोगाने रससार इत्यादी तयार करून त्याचा उपयोग करून गृहस्थाश्रमात सर्व कार्य सिद्ध करावे. ॥ ७ ॥